संत पीपाजी फोटो

शूरवीरा री धरती थी वा , गागरोन जलदुर्ग था वो
जठै पीपा प्रताप वीर हुआ , खुन सिंचित भूमि थी वो
कण कण हर कण शौर्य से भरा , गुंज गगन मे सारी थी
अहिंसा के मार्ग पर चला नृप पीपा , वात उणरी हर हितकारी थी ।

भक्त परमेष्ठी दर्जी की अद्भुत कथा

Bhakt Parmeshthi Darji Ki Katha

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आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व दिल्ली में परमेष्ठी नाम का काले रंग का एक कुबड़ा दर्जी रहता था। शरीर से कुरूप होने पर भी वह हृदय से भगवान का भक्त था। उसकी पत्नी का नाम था विमला। उसके एक पुत्र और दो कन्याएँ थीं।

उसे स्त्री पुत्रादि का कोई मोह नहीं था। भगवान नाम में उसकी अपार प्रीति थी। कपड़े सीते-सीते वह नाम जप किया करता था। भक्त होने के साथ परमेष्ठी अपने काम में पूरा निपुण था। सिलाई के बारीक काम के लिए उसकी ख्याति थी। बड़े-बड़े अमीर, नवाब उसीसे अपने वस्त्र सिलवाते थे। बादशाह को भी उसी के सिले वस्त्र पसंद आते थे।

 

एक बार बादशाह के सिंहासन के नीचे दो बढ़िया गलीचे उनके पैर रखने के लिए बिछाये गये। बादशाह को वे गलीचे पसंद नहीं आये। उन्होंने दो तकिये बनवाने का विचार किया। बहुमूल्य मखमल मँगाकर उस पर सोने के तारों के सहारे हीरे, माणिक, मोती जड़वाये गये। जड़ाऊ काम बादशाह को पसंद आया । परमेष्ठी को बुलवाकर बादशाह ने वह कपड़ा उन्हें दिया और उसके दो तकिए बनाने का आदेश दिया। परमेष्ठी वह रत्नजटित वस्त्र लेकर घर आ गये।

घर आकर परमेष्ठी ने उस वस्त्र के दो खोल बनाये। दोनों में इत्र से सुगन्धित रुई भरी। तकियों के ऊपर रत्नों के बने फूल-पत्ते जगमग करने लगे। इत्र की सुगन्ध से घर भर गया। ऐसे तकिये भला दर्जी अपने घर में कैसे रखे। वह उन्हें बादशाह के यहाँ ले जाने को उठ खड़ा हुआ ।

तकियों को उठाकर हाथ में लेते ही परमेष्ठी ने ध्यान से रत्नों की छटा देखी । उनके मन ने कहा–‘कितने सुन्दर हैंं ये तकिये? ये क्या एक सामान्य मनुष्य के योग्य हैं? इनके अधिकारी तो भगवान वासुदेव ही हैं।’ जैसे-जैसे इत्र की सुगन्ध नाक में पहुंचने लगी, वैसे-वैसे यह विचार और दृढ़ होने लगा।मन में द्वन्द्व चलने लगा–‘वह कारीगरी किस काम की, जो भगवान की सेवा में न लगे । परंतु मैं क्या करूँ? तकिए तो बादशाह के हैं।’

मन के असमंजस ने ऐसा रूप लिया कि परमेष्ठी को पता ही न चला कि वह कहाँ है, क्या कर रहा है । उस दिन जगन्नाथपुरी में रथयात्रा का महोत्सव था। परमेष्ठी एक बार जाकर रथयात्रा का महोत्सव देख आया था। आज भावावेश में जैसे रथयात्रा का वह प्रत्यक्ष दर्शन करने लगा । परमेष्ठी देख रहा है- — श्री जगन्नाथ जी रथ पर विराजमान हैं। सहस्त्रों नर नारी रस्सी पकड़कर रथ को खींच रहे हैं। कई पीछे से ठेल रहे हैं। कीर्तन हो रहा है , जयजयकार गूंज रहा है । सेवक गण एक के बाद एक वस्त्र विछाते जा रहे हैं ।श्री जगन्नाथ जी एक वस्त्र से दूसरे वस्त्र पर पधारते हैं। सहसा रथ के कठिन आघात से जगन्नाथ जी के नीचे विछाया हुआ वस्त्र फट गया। सेवक मन्दिर में दूसरा वस्त्र लेने दौड़े, पर उन्हें देर होने लगी। परमेष्ठी से यह दृश्य देखा नहीं गया। उन्होंने शीघ्रता से दो तकियों में से एक जगन्नाथ जी को अर्पण कर दिया। प्रभु ने उसे स्वीकार कर लिया। परमेष्ठी के आनन्द का पार नहीं रहा। वह आनन्द के मारे दोनों हाथ उठाकर नाचने लगा।

परमेष्ठी ने स्वप्न नहीं देखा था। सचमुच रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ स्वामी के नीचे का एक वस्त्र फट गया था और पुजारियों ने देखा कि किसी भक्त ने रथ पर एक बहुमूल्य रत्नजटित तकिया प्रभु को चढ़ा दिया है। यहाँ होश में आकर परमेष्ठी ने देखा कि एक तकिया गायब है । उसे बड़ा आनन्द हुआ। सर्वान्तरामी प्रभु ने उसके हृदय की बात जानकर एक तकिया स्वीकार कर लिया। अब उसे किसी का क्या भय।क्षुद्र बादशाह उसके प्राण ही तो ले सकता है । वह कहाँ मृत्यु से डरता है । उसके दयामय प्रभु ने उस पर इतनी कृपा की।वह तो आनन्द के मारे कीर्तन करता हुआ नाचने लगा।

बादशाह के सिपाही उसे बुलाने आये। एक तकिया लेकर वह बादशाह के पास पहुंचा । बादशाह तकिये की कारीगरी देखकर बहुत सन्तुष्ट हुआ। उसने दूसरे तकिये की बात पूछी। परमेष्ठी ने निर्भयता पूर्वक कहा– उसे तो नीलाचलनाथ श्री जगन्नाथ स्वामी ने स्वीकार कर लिया। पहले तो बादशाह ने परिहास समझा। वह बार बार पूछने लगा। जब दर्जी ने यही बात अनेक बार कही, तब बादशाह को क्रोध आ गया। उन्होंने परमेष्ठी को कारागार में डालने का आदेश दे दिया।

परमेष्ठी कारागार की अँधेरी कोठरी में पड़े-पड़े प्रभु का स्मरण कर रहे थे। सहसा हथकड़ी टूट गयी, तड़ाक-तड़ाक करके बेड़ियों के टुकड़े उड़ गये। भड़भड़ाकर बंदीगृह की कोठरी का द्वार खुल गया। परमेष्ठी के सामने एक अपूर्व ज्योति प्रकट हुई। दूसरे ही क्षण शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी प्रभु ने उन्हें दर्शन दिया। परमेष्ठी आनन्दमग्न होकर प्रभु के चरणों में लोटने लगे। प्रभु ने कहा–‘परमेष्ठी ! मेरे भक्त से अधिक बलवान संसार में और कोई नहीं है ।किसका साहस है जो मेरे भक्त को कष्ट दे। आ बेटा! मेरे पास आ।’

परमेष्ठी तो कृतार्थ हो गये। प्रभु ने अपने चरणों पर गिरते हुए उन्हें उठाया।उनके मस्तक पर अपना अभय कर रखा। उन्हें मुक्त करके वे अन्तर्धान हो गये।

उधर बादशाह ने स्वप्न में एक बड़ा भयंकर पुरुष देखा। जैसे साक्षात् महाकाल अपना कठोर दण्ड उठाकर उसे पीट रहे हों और गर्जन करके कहते हों—‘ तू परमेष्ठी को कैद करेगा? तू?’ बादशाह डर के मारे चीखकर जग गया। वह थर-थर कांप रहा था।उसका अंग-अंग दर्द कर रहा था।शरीर पर प्रहार के स्पष्ट चिन्ह थे।सवेरा होते ही उसने मन्त्रियों से स्वप्न की बात कही।सबको लेकर वह कैदखाने गया। वहाँ पहरेदार सोये पड़े थे। परमेष्ठी की हथकड़ी-बेड़ी टूटी हुयी थी। उनके शरीर से दिव्य तेज निकल रहा था। वे ध्यान में मग्न थे। ध्यान टूटने पर वे व्याकुल से होकर रोने लगे। बादशाह को बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने परमेष्ठी से हाथ जोड़कर क्षमा मांगी। नाना प्रकार के वस्त्राभरणों से सज्जित करके हाथी पर बैठाकर गाजे-वाजे के साथ उन्हें शहर लाया। बहुत सा धन दिया उसने। चारों ओर भक्त परमेष्ठी का जय-जयकार होने लगा।

परमेष्ठी को यह मान प्रतिष्ठा बिल्कुल नहीं रुची। प्रतिष्ठा से बचने के लिए दिल्ली छोड़कर वे दूसरी जगह चले गये और वहीं रहकर पूरा जीवन उन्होंने भगवान के भजन-पूजन में व्यतीत किया।

दशरथ गोयल भवरानी- 10rath goyal bhavarani

हिन्दू तिलक क्योँ लगाते हैँ ? जानेँ _

सिर पर तिलक क्यों आवश्यक है?

पूजा और भक्ति का एक प्रमुख अंग तिलक है। भारतीय संस्कृति में पूजा-अर्चना, संस्कार विधि, मंगल कार्य, यात्रा गमन, शुभ कार्यों के प्रारंभ में माथे पर तिलक लगाकर उसे अक्षत से विभूषित किया जाता है।

उत्तर भारत में आज भी तिलक-आरती के साथ आदर सत्कार-स्वागत कर तिलक लगाया जाता है। तिलक मस्तक पर दोनों भौंहों के बीच नासिका के ऊपर प्रारंभिक स्थल पर लगाए जाते हैं जो हमारे चिंतन-मनन का स्थान है- यह चेतन-अवचेतन अवस्था में भी जागृत एवं सक्रिय रहता है, इसे आज्ञा-चक्र भी कहते हैं। इसी चक्र के एक ओर दाईं ओर अजिमा नाड़ी होती है तथा दूसरी ओर वर्णा नाड़ी है।

इन दोनों के संगम बिंदु पर स्थित चक्र को निर्मल, विवेकशील, ऊर्जावान, जागृत रखने के साथ ही तनावमुक्त रहने हेतु ही तिलक लगाया जाता है। इस बिंदु पर यदि सौभाग्यसूचक द्रव्य जैसे चंदन, केशर, कुमकुम आदि का तिलक लगाने से सात्विक एवं तेजपूर्ण होकर आत्मविश्वास में अभूतपूर्ण वृद्धि होती है, मन में निर्मलता, शांति एवं संयम में वृद्धि होती है। पूजा और भक्ति का एक प्रमुख अंग तिलक है।

भारतीय संस्कृति में पूजा-अर्चना, मंगल कार्य, यात्रा गमन, शुभ कार्यों के प्रारंभ में माथे पर तिलक लगाकर उसे अक्षत से विभूषित किया जाता है। उत्तर भारत में आज भी तिलक-आरती के साथ आदर सत्कार तिलक लगाया जाता है।

आइये जानेँ हमारे पुर्वर्ज खड़ाउँ क्योँ पहनते थे ?

मित्रो जानिए हमारे पुर्वज खड़ाऊ क्यों पहनते थे?

पुरातन समय में हमारे पूर्वज पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ (चप्पल) पहनते थे। पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की सोच पूर्णत: वैज्ञानिक थी। गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं । यह प्रक्रिया अगर निरंतर चले तो शरीर की जैविक शक्ति(वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके।

इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊ पहनी जाने लगी।
उस समय चमड़े का जूता कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया। जबकि लकड़ी के खड़ाऊ पहनने से किसी धर्म व समाज के लोगों के आपत्ति नहीं थी इसीलिए यह अधिक प्रचलन में आए। कालांतर में यही खड़ाऊ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गए ।

खड़ाऊ के सिद्धांत का एक और सरलीकृत स्वरूप हमारे जीवन का अंग बना वह है पाटा। डाइनिंग टेबल ने हमारे भारतीय समाज में बहुत बाद में स्थान पाया है। पहले भोजन लकड़ी की चौकी पर रखकर तथा लकड़ी के पाटे पर बैठकर ग्रहण किया जाता था। भोजन करते समय हमारे शरीर में सबसे अधिक रासायनिक क्रियाएं होती हैं। इन परिस्थिति में शरीरिक ऊर्जा के संरक्षण का सबसे उत्तम उपाय है चौकियों पर बैठकर भोजन करना।

महाराणाप्रताप जी के बारे मेँ कुछ जानकारियाँ

महाराणा प्रताप के बारे में कुछ रोचक जानकारी:-

1… महाराणा प्रताप एक ही झटके में घोड़े समेत दुश्मन सैनिक को काट डालते थे।

2…. जब इब्राहिम लिंकन भारत दौरे पर आ रहे थे। तब उन्होने अपनी माँ से पूछा कि- हिंदुस्तान से आपके लिए क्या लेकर आए ? तब माँ का जवाब मिला- “उस महान देश की वीर भूमि हल्दी घाटी से एक मुट्ठी धूल लेकर आना, जहाँ का राजा अपनी प्रजा के प्रति इतना वफ़ादार था कि उसने आधे हिंदुस्तान के बदले अपनी मातृभूमि को चुना।” लेकिन दुर्भाग्यवस उनकी वो यात्रा रद्द हो गयी। “बुक ऑफ़ प्रेसिडेंट यु एस ए ‘किताब में आप यह बात पढ़ सकते हैं।’

3…. महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलोग्राम था और कवच का वजन भी 80 किलोग्राम ही था। कवच, भाला, ढाल, और हाथ में तलवार का वजन मिलाएं तो कुल वजन 207 किलो था।

4…. आज भी महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में सुरक्षित हैं|

5…. अकबर ने कहा था कि अगर राणा प्रताप मेरे सामने झुकते है, तो आधा हिंदुस्तान के वारिस वो होंगे, पर बादशाहत अकबर की ही रहेगी| लेकिन महाराणा प्रताप ने किसी की भी अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया|

6…. हल्दी घाटी की लड़ाई में मेवाड़ से 20000 सैनिक थे और अकबर की ओर से 85000 सैनिक युद्ध में सम्मिलित हुए|

7…. महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का मंदिर भी बना हुआ है, जो आज भी हल्दी घाटी में सुरक्षित है|

8…. महाराणा प्रताप ने जब महलों का त्याग किया तब उनके साथ लुहार जाति के हजारो लोगों ने भी घर छोड़ा और दिन रात राणा कि फौज के लिए तलवारें बनाईं| इसी समाज को आज गुजरात मध्यप्रदेश और राजस्थान में गाढ़िया लोहार कहा जाता है|
मैं नमन करता हूँ ऐसे लोगो को|

9…. हल्दी घाटी के युद्ध के 300 साल बाद भी वहाँ जमीनों में तलवारें पाई गई। आखिरी बार तलवारों का जखीरा 1985 में हल्दी घाटी में मिला था|

10….. महाराणा प्रताप को शस्त्रास्त्र की शिक्षा “श्री जैमल मेड़तिया जी” ने दी थी, जो 8000 राजपूत वीरों को लेकर 60000 मुसलमानों से लड़े थे। उस युद्ध में कुल 48000 लोग मारे गए थे । जिनमे 8000 राजपूत और 40000 मुग़ल थे|

11…. महाराणा के देहांत पर अकबर भी रो पड़ा था|

12…. मेवाड़ के आदिवासी भील समाज ने हल्दी घाटी में अकबर की फौज को अपने तीरो से रौंद डाला था। वो महाराणा प्रताप को अपना बेटा मानते थे और राणा बिना भेदभाव के उन के साथ रहते थे।

“आज भी मेवाड़ के राजचिन्ह पर एक तरफ राजपूत हैं, तो दूसरी तरफ भील|”

13….. महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक महाराणा को 26 फीट का दरिया पार कराने के बाद वीरगति को प्राप्त हुआ| उसकी एक टांग टूटने के बाद भी वह दरिया पार कर गया। जहाँ वो घायल हुआ वहां आज खोड़ी इमली नाम का पेड़ है, जहाँ पर चेतक की मृत्यु हुई वहाँ चेतक मंदिर है|

14….. राणा का घोड़ा चेतक भी बहुत ताकतवर था उसके मुँह के आगे दुश्मन के हाथियों को भ्रमित करने के लिए हाथी की सूंड लगाई जाती थी। यह हेतक और चेतक नाम के दो घोड़े थे|

15….. मरने से पहले महाराणा प्रताप ने अपना खोया हुआ 85% मेवाड़ फिर से जीत लिया था। सोने चांदी और महलो को त्यागकर वो 20 वर्ष मेवाड़ के जंगलो में घूमे।

16…. महाराणा प्रताप का वजन 110 किलो और लम्बाई 7’5” थी, दो म्यान वाली तलवार और 80 किलो का भाला हाथ मेँ रखते थे।

महाराणा प्रताप के हाथी की कहानी:

मित्रोँ, आप सब ने महाराणा प्रताप जी के घोड़े चेतक के बारे में तो सुना ही होगा, लेकिन उनका एक हाथी भी था। जिसका नाम था “रामप्रसाद।”

उसके बारे में आपको कुछ बाते बताता हुँ।

रामप्रसाद हाथी का उल्लेख अल- बदायुनी, जो मुगलों की ओर से हल्दीघाटी के युद्ध में लड़ा था ने अपने एक ग्रन्थ में किया है। वो लिखता है की-

‘जब महाराणा प्रताप पर अकबर ने चढाई की थी, तब उसने दो चीजो को ही बंदी बनाने की मांग की थी।
एक तो खुद महाराणा और दूसरा उनका हाथी रामप्रसाद।’

आगे अल-बदायुनी लिखता है की-

‘वो हाथी इतना समझदार व ताकतवर था की उसने हल्दीघाटी के युद्ध में अकेले ही अकबर के 13 हाथियों को मार गिराया था।’

वो आगे लिखता है कि-

‘उस हाथी को पकड़ने के लिए हमने 7 बड़े हाथियों का एक चक्रव्यूह बनाया और उन पर 14 महावतो को बिठाया, तब कहीं जाकर उसे बंदी बना पाये।’

अब सुनिए एक भारतीय जानवर की स्वामी भक्ति :-

उस हाथी को अकबर के समक्ष पेश किया गया। जहाँ अकबर ने उसका नाम पीरप्रसाद रखा। रामप्रसाद को मुगलों ने गन्ने और पानी दिया। पर उस स्वामिभक्त हाथी ने 18 दिन तक मुगलों का न तो दाना खाया और न ही पानी पिया और वो शहीद हो गया। तब अकबर ने कहा था कि-

“जिसके हाथी को मैं अपने सामने नहीं झुका पाया, उस महाराणा प्रताप को क्या झुका पाउँगा.?”

धन्य है हमारी भारतभूमि जहाँ के मनुष्य को छोड़िये जानवर भी अपना स्वाभिमान नहीँ जाने दिये भले ही अपने प्राणोँ कि आहुती दे दिये।

हमेँ अपने इतिहास पर गर्व है लेकिन वर्तमान पर नहीँ।

हिन्दुस्तान शब्द कि उत्पत्ति

हिन्दुस्तान हिन्दुस्थान का परिवर्तित नाम है। आइये इसका इतिहास जानते हैँ।

‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार –

“हिमालयात्स मारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥”

अर्थात : हिमालय से प्रारम्भ
होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है। “हिन्दू” शब्द “सिन्धु” से बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं –

पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र मे मिलती है, दूसरा – कोई समुद्र या जलराशि।

ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं : सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज),
विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर “हि” एवं इन्दु
का अन्तिम अक्षर “न्दु”, इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना “हिन्दु” और यह भूभाग “हिन्दुस्थान” कहलाया।

‘हिन्दू’ शब्द उस समय धर्म की बजाय राष्ट्रीयता के रुप में प्रयुक्त होता था।
ध्यान देँ – “चूँकि उस समय न केवल भारत में वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय ही नहीं हुआ था इसलिये “हिन्दू” शब्द सभी भारतीयों के लिये प्रयुक्त होता था। भारत में केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के
बसने के कारण कालान्तर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ में प्रयोग करना शुरु कर दिया।

अब जो लोग कहते हैँ कि वेदो या अन्य हिन्दू धर्मग्रन्थो मेँ हिन्दू शब्द नहीँ है उन बुद्धिजीवी जन से कहना चाहेँगे कि –

जिस तरह अमृतरूपी औषधि को विषनाशक की संज्ञा देना बेकार है जब विष की उत्पत्ति ही ना हुई हो।
जिस तरह रात्रि के आभाव मेँ रात्रिचर अथवा दिनचर प्राणियो को ये संज्ञा देना बेकार है।
एक सहज उदाहरण कि जिस प्रकार से हंस को केवल हंस ही कहते हैँ ना कि स्वेत हंस। क्योकि ये कहना तब उचित होता जब कि किसी और प्रजाति के हंस होते।

ठीक उसी प्रकार जब संसार मेँ एक ही धर्म था “सनातन धर्म” तो किसी को क्या आवश्यकता थी कि वो धर्म को भी एक अलग नाम देँ। इसलिए हमारे धर्मग्रंथो मेँ हिन्दू शब्द का उल्लेख नहीँ है।

अब जानेँ हिन्दू शब्द के बारे मेँ-

आम तौर पर हिन्दू शब्द को अनेक विश्लेषकों द्वारा विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द माना जाता है। इस धारणा के अनुसार हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक धर्म भी कहा जाता है। ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है-

वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। भाषाविदो के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की “स्” ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन “स्”) ईरानी भाषाओं की “ह्” ध्वनि में बदल जाती है। इसलिये सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) मेँ जाकर हफ्त हिन्दु मेँ परिवर्तित हो गया (अवेस्ता: वेन्दीदाद, फ़र्गर्द १.१५)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने
वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू
कहना शुरू कर दिया।

हमे उम्मीद है आपको ये जानकारी अच्छी लगेगी।

हर हिन्दू Share करे।

मंदिर मेँ घण्टा क्योँ बजाया जाता है?

हम मंदिर में घण्टा क्यों बजाते है ?

परम्पराओं और आस्थाओं का त्याग व वैदिक विज्ञान को तिलांजली दे चुके हिन्दू जनमानस इस प्रश्न के सम्मुख स्वयं को असहज अनुभव करते है क्योकि उनके पास इस प्रश्न का तार्किक उत्तर नहीं होता। फलस्वरूप हिन्दू धार्मिक आस्थाओं का हिन्दू विरोधियो द्वारा उपहास बनाया जाता है!

सत्य यह है की सनातन धर्म की इस महान औपचारिकता का एक बहुत ही ठोस धार्मिक, आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक आधार है जिसे जानने की अत्यंत आवश्यकता है!

क्या है घण्टा ……………?

वास्तिविक घण्टा अष्ट धातु से बना होता है! अष्ट धातु अर्थात आठ धातुओ के संयोग से अष्ट धातु का निर्माण होता है!

ये आठ धातुये है…….. सोना, चाँदी, पीतल, तांबा, रांगा, जस्ता, सीसा तथा लोहा !!

इन आठ धातुओ के सयोंग से एक विशिष्ट एवं अद्भुत धातु का निर्माण होता है और इसे ही अष्ट धातु कहा जाता है, कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो घण्टे बहुधा अष्ट धातु निर्मित ही होते है!!

अष्ट धातु निर्मित घण्टे की टंकार से उत्पन्न होने वाली ध्वनि प्राण घातक सूक्ष्म जीवाणुओ को हवा में ही मारने की क्षमता रखती है। अर्थात अनेक प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु जो वातावरण में विद्यमान होते है एवं प्राण वायु के मध्यम से हमारे शरीर में पहुंचकर हानि पहुचाने की शक्ति रखते है, ऐसे हानिकारक जीवाणुओँ की घण्टे की टंकार के साथ ही तत्काल मृत्यु हो जाती है। जो अन्य किसी साधन से संभव नहीं है।
एक तथ्य और _हमारी शरीर मेँ भी ये अष्ठधातु उपस्थित होते हैँ , जब घण्टे की टंकार हमारे कर्णद्वार से मस्तिष्क मेँ प्रवेश करती है तो हमारे मस्तिष्क मेँ एक तरंग उत्पन्न होती है। जिससे समस्त चेतना केन्द्र सक्रिय हो जाते हैँ। प्रतिदिन प्रात:काल नियमित रूप से घण्टे की टंकारा श्रवण करने वाले व्यक्ति को मानसिक तनाव, एवं लकवा जैसी भयंकर बिमारियोँ को होने की आशंका नही रहती।

घण्टे की आवाज़ ककर्श न होकर मनमोहक एवं कर्ण-प्रिय होती है जिससे किसी भी प्रकार हानि नहीं होती…….!

मनमोहक एवं कर्ण-प्रिय धव्नि मन मष्तिष्क को आध्यात्म भाव की ओर ले
जाने का सामर्थ्य रखती है। बस आवश्कता है इस दिव्य ध्वनि को अनुभव करने की
इसलिए अब से जब भी आप मंदिर या किसी भी देव स्थान पर जाएँ तो घण्टा अवश्य बजाएं॥

काशी विश्वनाथ का इतिहास

“ॐ नम: शिवाय”

एक बार अवश्य पढ़ेँ और अन्य मित्रोँ तक पहुँचाने मेँ सहायता प्रदान करेँ !

¤¤ काशी का इतिहास ¤¤

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काशी में भगवान ”शिव” ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रगट हुए थे। सम्राट विक्रमादित्य ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था। मंदिर को लूटने आए महमूद गजनवी के भांजे सालार मसूद को सम्राट सुहेल देव पासी ने मौत के घाट उतारा था।

मंदिर को 1194 में कुतुबब्दीन ने तोड़ा। मंदिर फिर से बना। 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह ने फिर इसे तोड़ा। 1494 में मुस्लिम शासको नेँ काशी के विश्वनाथ मंदिर सहित सभी मंदिरों को तोड़ दिया.काशी में एक भी मंदिर नहीं बचा था।

1585 में राजा टोडरमल की सहायता से फिर मंदिर बना। परन्तु काशी विश्वनाथ के मूल मंदिर के स्थान पर आज ज्ञानवापी मस्जिद है !

02/09/1669 को औरंगजेब ने काशी-विश्वनाथ मन्दिर फिर से ध्वस्त करा दिया और उसी जगह मस्जिद का निर्माण करा दिया, जिसका नाम आज ज्ञानवापी मस्जिद है!

औरंगजेब ने ही मथुरा में कृष्णजी का मंदिर तोड़वा कर वहां ईदगाह बनवाई थी। 1752 से लेकर 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ता जी सिंधिया व मल्हार राव होल्कर ने काशी विश्वनाथ मन्दिर की मुक्ति के प्रयास किए किन्तु आज भी मूल मंदिर के थोड़ी दूर पर वर्तमान काशीविश्वनाथ मंदिर है।

7 अगस्त, 1770 में महाद जी सिन्धिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मन्दिर तोडऩे की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया। लेकिन तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रभाव हो गया था, इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया।

इन्दौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1780 में विश्वनाथ मंदिर बनवाया, जिस पर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने 9 क्विंटल सोने का छत्र बनवाया।

ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां नन्दी की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई। काशी विश्वनाथ मंदिर का मुकदमा मुस्लमान हार चुके हैँ !

11 अगस्त, 1936 को दीन मुहम्मद, मुहम्मद हुसैन और मुहम्मद जकारिया ने स्टेट इन काउन्सिल में प्रतिवाद संख्या-62 दाखिल किया और दावा किया कि सम्पूर्ण परिसर वक्फ की सम्पत्ति
है। लम्बी गवाहियों एवं ऐतिहासिक प्रमाणों व शास्त्रों के आधार पर यह दावा गलत पाया गया और 24 अगस्त 1937 को बाद खारिज कर दिया गया।

इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील संख्या 466 दायर की गई लेकिन 1942 में उच्च न्यायालय ने भी इस अपील को खारिज कर दिया।

कानूनी गुत्थियां साफ होने के बावजूद मंदिर-मस्जिद का मसला आज तक फंसा कर रखा गया है।

आइये जानेँ काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास ;

अमेरिका के लेखक तथा साहित्यकार मार्क ट्विन ने काशी कि यात्रा के बाद लिखा कि “बनारस” इतिहास से भी पुराना नगर है. वह परंपराओं से पुराना है। वह कहावतों और कहानियों से भी पुराना है। विश्व कि समस्त सभ्यताओ से पुराना है। यहां भूत, वर्तमान, शाश्वत तथा निरंतरता साथ-साथ विद्यमान हैं। काशी गंगा के पश्चिम किनारे पर स्थित है।

चीनी यात्री हुएन सांग (629-675) ने अपनी काशी यात्रा के उल्लेख में 100 फुट ऊंची शिव मूर्ती वाले विशाल तथा भव्य मंदिर का वर्णन किया है।

बौद्ध धर्म के प्रभाव को कम करने के लिए शंकराचार्य का आगमन भी यहीं हुआ और उन्होंने वैदिक धर्म की
स्थापना की।

महर्षि पतंजलि ने अपना काव्य यहीं लिखा था। संत कबीर ने संत मत की स्थापना यहीं की।

मीरा बाई के गुरु संत रैदास (रविदास) भी काशी के निवासी थे।

रामचरितमानस और अन्य ग्रंथों की रचना गोस्वामी तुलसी दास ने यहीं पर की थी।

काशी नागरी प्रचारिणी सभा, भारतेंदु हरिचंद्र, मुंशी प्रेमचंद्र और जयशंकर प्रसाद आदि अन्य विद्वान भी काशी की ही देन हैं।

काशी के गंगा तट पर लगभग सौ घाट हैं। इनमें से एक पर स्वयं हरिश्चंद्र ने श्मशान का मृतक दाह संस्कार लगान वसूलने का कार्य किया था।

आधुनिक शिक्षा का विश्वविद्यालय-बनारस हिंदू युनिवर्सिटी पं॰ मदन मोहन मालवीय ने यहीं स्थापित किया था जयपुर के शासक जय सिंह ने एक वेधशाला भी बनवायी थी। यह 1600 सन में बनी थी। इसके यंत्र आज भी ग्रहों की
सही नाप और दूरी बतलाते हैं।

स्कंध पुराण में 15000 श्लोको में काशी विश्वनाथ का गुणगान मिलता है। इससे सिद्ध होता है कि यह मंदिर हजारो वर्ष पुराना है।

इसके उत्तर में वारान तथा दक्षिण में आसी नदियां बहती हैं। इसको काशी का, यानी प्रकाश का नगर भी कहते हैं। प्रकाश ज्योति शिव को भी कहते हैं। इसको ‘अविमुक्त’, अर्थात जिसको शिव ने कभी भी नहीं छोड़ा, भी कहते हैं। इसको ‘आनंद वन’ और ‘रुद्रवास’ भी कहते हैं।

भारत के सांस्कृतिक तथा धार्मिक ग्रंथो में ज्योति प्रकाश का विशेष अर्थ है ‘ज्योति’, जो अंधकार को मिटाती है, ज्ञान फैलाती है, पापों का नाश करती है, अज्ञान को नष्ट करती है आदि। काशी अज्ञान, पाप का नाश करने वाली है, मोक्ष और समृद्धि प्रदान करने वाली है।

प्रलयकाल में भी काशी का लोप नहीं होता। उस समय भगवान महादेव इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं।

आदि सृष्टि स्थली भी यहीं भूमि बतलायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने का कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होने सारे की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और इन्हीं की अर्चना से श्रीवशिष्ठजी तीनों लोकों में पुजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाये।

सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है।

तस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवंम दुखों परिपीड़ित जनों के लिये काशीपुरी ही एकमात्र गति है। वामपंथी (हिन्दू विरोधी), सेक्युलर विचारधारा के इतिहासकार मंदिर को तोड़ना उचित ठहराते है , ये देश द्रोही इतिहासकार विदेशी मजहब से पैसे लेकर झूठी कहानी रचे हैँ कि ___

सन 1669 ईस्वी में औरंगजेब अपनी सेना एवं हिन्दू राजा मित्रों के साथ वाराणसी के रास्ते बंगाल जा रहा था , रास्ते में बनारस आने पर हिन्दू राजाओं की पत्नियों ने गंगा में डुबकी लगा कर काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा करने की इच्छा व्यक्त की , जिसे औरंगजेब सहर्ष मान गया, और, उसने अपनी सेना का पड़ाव बनारस से पांच किलोमीटर दूर ही रोक दिया ! फिर उस स्थान से हिन्दू राजाओं की रानियां पालकी एवं अपने अंगरक्षकों के साथ गंगाघाट जाकर गंगा में स्नान कर विश्वनाथ मंदिर में पूजा करने चली गई ! पूजा के उपरांत सभी रानियां तो लौटी लेकिन कच्छ की रानी नहीं लौटी, जिससे औरंगजेब के सेना में खलबली गयी और, उसने अपने सेनानायक को रानी को खोज कर लाने का आदेश दिया …!

[ध्यान रहे ये झूठी कहानी बनाई गई है ये नीचे प्रमाणित किया गया है।]

औरंगजेब का सेनानायक अपने सैनिकों के साथ रानी को खोजने मंदिर पहुं … जहाँ, काफी खोजबीन के उपरांत “”भगवान गणेश की प्रतिमा के पीछे”” से नीचे की ओर जाती सीढ़ी से मंदिर के तहखाने में उन्हें रानी रोती हुई मिली….! जिसकी अस्मिता और गहने मंदिर के पुजारी द्वारा लुट चुके थे …!

इसके बाद औरंगजेब के लश्कर के साथ मौजूद हिन्दू राजाओ ने मंदिर के पुजारी एवं प्रबंधन के खिलाफ कठोरतम करवाई की मांग की ! जिससे विवश होकर औरंगजेब ने सभी पुजारियों को दण्डित करने एवं उस “”विश्वनाथ मंदिर”” को ध्वस्त करने के आदेश देकर मंदिर को तोड़वा दिया ! और उसी जगह ज्ञानवापी मस्जिद बना दी॥

हिन्दू विरोधी इन तथाकथित इतिहासकारों कि कहानी के झूठ का सत्यापन __

झूठ न.१ औरंगजेब कभी भी बनारस और बंगाल नहीं गया था, उसकी जीवनी में भी यह नहीं लिखा है। किसी भी इतिहास कि किताब में यह नहीं लिखा है।

झूठ न.२- इस लुटेरे हत्यारे ऐयाश औरंगजेब ने हजारो मंदिरों को तोड़ा था, न कि केवल विश्वनाथ को इसलिए इन इतिहासकारों की लिखे हुए इतिहास को कूड़ा में फेकने के लायक है । और ये वामपंथी इतिहासकार इस्लाम से पैसे लेकर ”हिन्दुओ के विरोध ” में आज भी बोलते है लिखते हैँ , किन्तु ये इतिहासकार मुसलमानों को अत्याचारी नहीं कहते हैँ । मुग़ल इस देश के युद्ध अपराधी हैँ , यह भी कहने और लिखने की हिम्मत इन इतिहासकारों में नहीं है ।

झूठ न.३- युद्ध पर जाते मुस्लिम शासक के साथ हिन्दू राजा अपनी पत्नियों को साथ नहीं ले जा सकते हैँ , क्योकि मुस्लिम शासक लूट पाट में औरतो को बंदी बनाते थे। जो कि उनके कुरॉन का नियम है।

झूठ न.४- जब कच्छ की रानी तथा अन्य रानियाँ अपने अंगरक्षकों के साथ मंदिर गयी थी, तब किसी पुजारी या महंत द्वारा उसका अपहरण कैसे संभव हुआ ? क्योँकि पुजारी तो जादी संख्या मेँ थे नहीँ, और इस कथा के आधार पर उनसे निपटने के लिए रानियाँ ही काफी थीँ। पुजारी द्वारा ऐसा करते हुए किसी ने क्यों नहीं देखा , यहाँ तक कि अन्य रानियाँ भी मौन थी !

झूठ न.५- अगर, किसी तरह ये न हो सकने वाला जादू हो भी गया था तो साथ के हिन्दू राजाओं ने पुजारी को दंड देने एवं मंदिर को तोड़ने का आदेश देने के लिए औरंगजेब को क्यों कहा ? हिन्दू राजाओं के पास इतनी शक्ति थी कि वो
खुद ही उन पुजारियों और मंदिर प्रबंधन को दंड दे देते।

झूठ न.६- क्या मंदिरों को तोड़कर वहां पर मस्जिद बनाने की प्रार्थना भी साथ
गए हिन्दू राजाओं ने ही की थी !

झूठ न.७- मंदिर तोड़ने के बाद और पहले के इतिहास में उस तथाकथित कच्छ की रानी का जिक्र क्यों नहीं है ?

“इन सब सवालों के जबाब किसी भी इतिहासकारों के पास नहीं है क्योंकि यह एक पूरी तरह से मनगढ़ंत कहानी है….!

सत्य ये है कि औरंगजेब मदरसे में पढ़ा हुआ एक कट्टर मुसलमान और जेहादी था, लुटेरा हत्यारा अरबी मजहब का औरंगजेब ने हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए,हिन्दू धर्म को समाप्त करने के लिए ना सिर्फ काशी विश्वनाथ बल्कि, कृष्णजन्म भूमि मथुरा के मंदिर अन्य सभी प्रसिद्ध मंदिरों को ध्वस्त कर वहां मस्जिदों का निर्माण करवा दिया था…..

जिसे ये मनहूस वामपंथी सेक्युलर इतिहासकार किसी भी तरह से न्यायोचित ठहराने में लगे हुए हैं , और अपने पुराने विश्वनाथ मंदिर की स्थिति ये है कि…..

वहां औरंगजेब द्वारा बनवाया गया ज्ञानवापी मस्जिद आज भी हम हिन्दुओं का मुंह चिढ़ा रहा है , और मुल्ले उसमेँ नियमित नमाज अदा करते हैं !

जबकि आज भी ज्ञानवापी मस्जिद के दीवारों पर हिन्दू देवी -देवताओं के मूर्ति अंकित हैं। क्या कोई बतायेगा “ज्ञानवापी” शब्द हिन्दुओँ का है या मुश्लिमोँ का ?

मस्जिद के दीवार में ही श्रृंगार गौरी की पूजा हिन्दू लोग वर्ष में 1 बार करने जाते हैँ , और मस्जिद के ठीक सामने भगवान विश्वनाथ का नंदी विराजमान है….!

इसीलिए…..हे हिन्दुओं जागो–जानो अपने सही इतिहास को क्योंकि इतिहास की सही जानकारी ही….. इतिहास की पुनरावृति को रोक सकती है…!

अब SHARE करने के लिए भी कहना पड़ेगा आप लोगोँ को नहीँ भूल जाओगे। तुरन्त SHARE करेँ जिससे भोली भाली युवा पीढ़ी भी अपने इतिहास के सत्य को जान सके और सेक्युलरता का कफ़न उतारकर वास्तविक जीवन जीये।